श्रद्धा का अर्थ क्या होता है?श्रद्धा का भाव क्या है?
श्रद्धा एक पवित्र मनोभाव है, जो समाज के पूजनीय एवं आदरणीय जनों के प्रति अंतर्मन में उत्पन्न होकर आत्म कल्याण की प्राप्ति कराता है। सामान्यतः संतों, महापुरुषों और आप्तवचनों के प्रति दृढ़विश्वास कहते हैं।
विश्वास से जन्म होता है, मानव मन में ही भक्ति का जन्म होता है मानव मन में। और इस प्रकार से मानव में अथाह श्रद्धा भाव जन्म लेता है।
वेदांत में गुरुओं द्वारा उपदेश वचनों के प्रति विश्वास को श्रद्धा कहा गया है, जो मनुष्य का सर्वविध कल्याण करने वाली षट् संपत्तियों में एक है। गुरुओं के प्रति श्रद्धा आयु, विद्या, यश और बल प्रदान करती है।
वेदांत में गुरुओ द्वारा दिया गया बहुत ही सत्य बाते है, लेकिन इन बातों को मनुष्य तभी समझ पाता जब वह उस स्थिति को प्राप्त करता है।
उदाहरण; यथा दृष्टि तथा सृष्टि। ये बात हर कोई को समझ नही आता है, एक प्यार से भरे व्यक्ति ही, ये बात समझ पाते है। और समाज को बेहतरीन ढँग से समझ पाते है।
यह बात हर कोई नही समझ पाता है।
अध्यात्म एवं लौकिक जीवन का कोई भी ऐसा मार्ग नहीं, जो के बिना पूर्ण होता हो। इसीलिए दुनिया के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद के श्रद्धा सूक्त के महत्व का विविध रूपों में गान किया गया है।
अपार श्रद्धा के भाव से ही मानव के जीवन में अध्यात्म का विकास होता है, जिससे मनुष्य अपने आप को बेहतरीन तरीके से जानकर अपने व्यक्तित्व का विकास behtar5 ढंग से कर पाता है।
श्रद्धा भाव अध्यात्म का द्वार है, जिससे मनुष्य अपने जीवन में बहुत ऊँचे शिखर को प्राप्त करता है और भगवान के द्वार में जल्दी प्रवेश करता है।
किंतु किसी भी कर्म में अनुरक्ति को नहीं कहते। यह ऐसा परम पवित्र भाव है, जिसके आने पर कर्म उपासना बन जाता है और करने वाला उपासक।
ईश्वर में दृढ़विश्वास भगवान पर श्रद्धा का प्रथम सोपान हैं, जिसके होने पर ही भक्ति के आगे के सोपानों पर चढ़ना संभव है।
श्रद्धा मानव मन कि भगवान के प्रति अथाह प्रेम को बताता है, । मानव को अपने भगवान के प्रति अथाह रखना चाहिए।
किंतु जैसे विश्वास की प्रसविनी है। वैसे ही विश्वास को जन्म देता है। इनके इस प्रगाढ़ संबंध के कारण ही गोस्वामी जी ने मानस के मंगलाचरण में श्रद्धा एवं विश्वास को पार्वती और शिव का स्वरूप कहा है।
जिसके बिना सिद्ध पुरुष भी अंतःस्थित परमात्मा को नहीं देख पाते। गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण रखने वाले ही गीता में ज्ञानप्राप्ति का अधिकारी कहा गया है।
ज्ञान, भक्ति और कर्म केवल अध्यात्म के विषय नहीं हैं, ये लोक जीवन के आधार भी हैं। ज्ञान के बिना भक्ति और कर्म संभव हैं, न भक्ति के ज्ञान और कर्म ।
इसी प्रकार कर्म के बिना ज्ञान और भक्ति भी संभव नहीं हैं। किंतु श्रद्धा के बिना तो ये तीनों असंभव हैं। अतः जीवन का ऐसा संस्कार है, जिसके आने पर बड़ी से बड़ी संकल्प सिद्धि भी आसान हो जाती है।
भक्ति में अंतर क्या है? और विश्वास क्या है?
भक्ति में ज्यादा अंतर नही है, मानव मन में भक्ति का जन्म होता है। औरविश्वास के कारण मानव मन में जन्म लेता है।
विश्वास में ज्यादा अंतर नही है, अपने भगवान के प्रति विश्वास रखने से मानव मन में का जन्म होता है। जो श्रद्धा ही बाद में मनुष्य को भगवान का बहुत बड़ा भक्त बनाता है।
फिर भक्ति ही, मिलकर अथाह भगवान प्रेम का रचना मानव हिर्दय में करती है।
मानव जीवन को बदल के रख देता है, एक सरद्धावांन व्यक्ति से आप कभी बात करोगे तभी ये बात समझ आयेगी की, कितना मानव को बदल के रख देता है, संसार में प्रेम बहुत है, लेकिन हर कोई को नही जान पाता है।
मानव जीवन को पूरी तरह बदल के रख देता है, जिसके कारण मनुष्य अध्यात्म जगत में बहुत आगे जा पाता है, और apne4 कार्य मे भी बहुत सफलता प्राप्त करता है।
3. Faq प्रश्न उत्तर।
1. क्या ध्यान से प्रेम जागृत होता है?
2.क्या अध्यात्म जगत में आगे जाकर जल्दी अमीर बन सकते है?
3. क्या पुनर्जन्म भी आपके भाग्य को प्रभाव डालता है?
4. क्या पुनर्जन्म होता है।
मेरी बातों को इतना ध्यान से पढे मै बहुत ही अनुगृहीत हूँ, मै आपके भीतर बैठे परम पिता परमात्मा को सादर प्रणाम करता हूँ । धन्यवाद ।
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